Friday, April 29, 2011

अरे कोशिश तो करो.......



"बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है,
हर शाख पे उल्लू बैठें हैं,अंजामे गुलिस्तां क्या होगा."


किसी शायर द्वारा कही गयी ये पंक्तियाँ भारतीय समाज के ताने-बने पर पूर्णतः सटीकबैठती हैं.आज हमारे राष्ट्र की शाखों पर ऐसे अनेक 'उल्लू' बैठें हैं,जो दिन-प्रतिदिन इन्हें खोखला बना रहे हैं.यूँ तो हम निरंतर प्रगति के पथ पर चलायमान हैं,तदोपरांत भी ऐसीअनेक समस्याएं हैं जिनसे मुह नहीं मोड़ा जा सकता.अगर 'भारत चमक रहा है' जैसे नारेसच्चाई के धरातल पर पर खड़े होते तो किसान कर्ज के बोझ तले दब आत्महत्या कर रहाहोता,दहेज़ के लिए कन्याओं को जलाया जा रहा होता और अर्थ की गठरी कुछ हाथों मेंसिमटती जा रही होती.धन के असामान्य वितरण से धनिकों की तिजोरियां भारती जारहीं हैं,वहीँ गरीब की फटी जेब अभी भी सिक्कों की खनक की बाँट जोह रही है.क्या अब भीकहेंगे 'भारत चमक रहा है'...?

दायरे को विस्तृत कर बात यदि समाज और राष्ट्र को सामान रूप से प्रभावित कर रही समस्याओं की करें,तो भी हमें अपनी इस तथाकथित 'चमक' केसाथ बहुत सी चीजें उपहार में मिली हैं जैसे-आतंकवाद,जनसँख्या विस्फोट,बेरोजगारी,रिश्वतखोरी इत्यादि.यहाँ पर 'इत्यादि' शब्द अति महत्वपूर्ण है,यह दर्शाता है की समस्याओं का पन्ना अभी समाप्त नहीं हुआ है,अपितु इनकी अधिक संख्या ने शब्दों के प्रवाह को रोक दिया है.

बात प्रारंभ करते हैं आतंकवाद से.किसी भी समस्या ने संपूर्ण संसार को एक सामान इतना प्रभावित नहीं किया होगा,जितना आतंकवाद ने.यूँ तोआतंकवाद शब्द का प्रयोग होते ही,पहले हम भारतीयों के दिमाग में कश्मीर कौंधता था,परन्तु अब इस दैत्य ने संपूर्ण भारत में अपने पाँव पसार लिएहैं.ताजा प्रमाण मुंबई में हुआ आतंकवादी हमला है.भारत के ह्रदय में हुए इस हमले ने पूरे भारतवर्ष को झकझोर के रख दिया.प्रभाव इतना व्यापक हैकी हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं.छोटे स्तर पर हुई हिंसा हमारे लिए अखबार की एक खबर भर है,वहीँ बड़े विस्फोट सामान्य चर्चा के लिए एक नयाविषय.इन विस्फोटो ने हमें बधिर बना दिया है,शारीरिक नहीं अपितु मानसिक स्तर पर.क्या अभी भी कहेंगे कि हम विकास के पथ पर सरपट भाग रहेहैं?नहीं,बिलकुल नहीं क्यूंकि यदि इस समस्या ने हमें पूरा अपंग तो नहीं बनाया है,परन्तु बहुत सरे घाव अवश्य दिए हैं.

अब रुख कुछ दूसरी समस्याओं की ओर करते हैं.सामाजिक स्तर पर जन्मी एक 'सरकारी रस्म' का विषय उठाते हैं,जिसे सभ्य शब्दकोष में रिश्वत अथवा घूस कहते हैं,परन्तु सरकारी बाबुओं की शब्दावली में ये एक अपमानसूचक शब्द है इसलिए 'उपहार' विशेषण का उपयोग करते हैं.'उपहारों' केलेन-देन इस प्रवृत्ति ने इतना जोर पकड़ लिया है कि अब समाज में इसे एक अपराध नहीं समझा जाता.पीड़ित व्यक्ति से भी इसका उत्तर पूछने परयही उत्तर मिलता है कि "वृन्दावन में रहना है तो राधे-राधे कहना है.".इसी 'सरकारी वृन्दावन' में श्रद्धापूर्वक दान किये गए चढ़ावे के कारण हमनेदुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों कि सूची में जगह बना ली है.हर्ष का विषय है,भारत सच में 'चमक' रहा है.

बढती जनसँख्या के कारण बढती बेरोजगारी एवम अशिक्षा.वे अन्य समस्याएँ है,जो हमारी आँखों में आंखे डाल आज हमें चुनौती दे रही हैं.ऐसे मेंहमारे अवसरवादी नेता अपनी राजनैतिक रोटियां सकने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं,और राष्ट्र के प्रति अपने 'दायित्वों' का निर्वहन करते हुए हमेंचुभोते हैं आरक्षण का दंश,दंश जो हमे दशकों तक सालता रहेगा,परन्तु जिस के फलस्वरूप पूरा राष्ट्र 'नेताजी' को सदैव श्रधासुमन अर्पितकरेगा.ओछी राजनीति ने हमारे देश को ऐसी नीतियां दे हैं,जिन के कारण देश में कई बार भावनात्मक बटवारा हुआ है.समाज में व्याप्त आर्थिक खाईको पाटने के नाम पर एक मानसिक खाई खोद दी गयी है.धूर्त नेताओं कि कारगुजारियों को देख कर मन बरबस ही कह उठता है-

"जन=जन रावण बढ़ रहे,घर-घर लंका धाम.
इतने रावण कैसे मरें,कहाँ हैं इतने राम."

और ये बात सिर्फ नेताओं पर ही लागू नहीं होती.यदि हम उन्हें दोषी ठहराते हैं,तो कदाचित हम स्वयं को दोष दी रहे हैं क्यूंकि हम ही ने उन्हें चुनाहै.इतनी सारी समस्याओं के उपरान्त क्या सच में 'सोने कि चिड़िया' अपनी पूरी चमक खो चुकी है?नहीं.परन्तु यदि हमने समय रहते नहीं चेते तो ऐसाही होगा.
समाज में एक मानसिक चेतना का का जागरण करना होगा,जिसका प्रारंभ प्रत्येक व्यक्ति अपने मानस से करे.दूसरों पर दोष मढ़ने कि अपनी प्रवृत्तिसे छुटकारा पाना होगा और स्वयं को सर्वप्रथम दोषी ठहराना सीखना होगा.रावण अर्थात समाज में व्याप्त बुराइओं को मारने के लिए स्वयं 'राम' बनना होगा.ये 'रावण' हमारे मानस में जगह बना चूका है,इसलिए इसे बहार निकाल कर इसका नाश करना होगा.और यही से शुरू होगा एक क्रांति कासूत्रपात क्यूंकि "रावण निकले जिस मन से,राम तो उस मन में है."

अपने मत का सही प्रयोग कर हमे योग्य उम्मीदवारों को सदन में पहुचना होगा क्यूंकि योग्य नेतृत्व के आभाव में कोई क्रांति कभी अपने गंतव्य तकनहीं पहुचती.सरकार को और जिम्मेदार बनाना होगा.आतंकवाद जैसी समस्या से सरकारी स्तर पर ही अधिक कुशलता से निपटा जा सकताहै,इसलिए सरकार को कुछ तात्कालिक कदम उठाने होंगे.आतंकवाद उन्ही जगहों पर पनपता है जहाँ बेरोजगारी,अशिक्षा अपनी चरमसीमा पर होतीहैं.इसलिए एक बड़े दानव से निपटने के लिए पहले ऐसे छोटे दानवों का संहार करना पड़ेगा.धन के विकेर्न्दिकरण की नितांत आवश्यकता है,क्यूंकि पेटके दो सिरे जोड़ पाने का असंतोष ही ज्वाला बन एक बड़ी प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्फुटित होता है.


सुधार का ये मार्ग कठिन दृष्टिगत होता है,परन्तु यदि इस राह पर रुक जाने के बहाने बहुत हैं,तो लने की वजहें भी कम नहीं.हमें चलनाहोगा की हम भावी पीढ़ी को समस्यामुक्त समाज रुपी सच्चा उपहार प्रदान कर सकें.हमे चलना होगा जिससे की स्वयं को भारतीय कहने का उल्लास अपनी चरमसीमा तक पहुंचे,और हमे चलना होगा की आतंक के फलस्वरूप फिर किसी परिवार को अपने प्रियजन को खोने की टीस सहनी पड़े.


यूँ तो आंकड़े कहने वाले अच्छी कहानी नहीं कह पाते परन्तु 125 करोड़ से अधिक आबादी के साथ हम एक नयी इबारत अवश्य लिख सकतेहैं,एक ऐसी इबारत जिसे पढ़ कर सारा संसार हमारे सामने नतमस्तक हो जाएगा. अरे कोशिश तो करो.


मैं लिख रहा हूँ तो मै करूँगा भी.....तुम पढ़ रहे तो साथ भी देना.....!


2 comments:

  1. And this is how our very own "chacha" could write in his teens..now 1 can guess why he is called so..
    Kaun kehta hai aasmaan me suraak nahi ho sakta,
    Zara ek pathhar to tabeeyat se uchhalo yaaron..!!

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  2. hmm...this one's dedicated to our hindi classes in school.... of which @himanshu u too were an extra-ordinary particiapnt..!!

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